क्या इसलिए भारत में बेरोजगारी बढ़ रही है?

मोदी सरकार अपने तीन साल पूरे होने का जश्न मना रही है. मंत्री-प्रधानमंत्री तीन साल की उपलब्धियों और कामयाबियों का बखान कर रहे हैं. तरक़्क़ी के तमाम पैमानों
पर खरे उतरने के दावे कर रहे हैं.
सरकार के इन दावों में सबसे कमज़ोर है, लोगों को रोज़गार देने का दावा. पिछले तीन सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार भले ही तेज़ हुई हो, रोज़गार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं.
भारत का मशहूर आईटी सेक्टर इस वक़्त बेहद बुरे दौर से गुज़र रहा है. कई बड़ी-छोटी कंपनियां छंटनी कर रही हैं.
क्या रोबोट हमारी नौकरियां छीन लेंगे?
क्या रोबोट हमारी नौकरियां छीन लेंगे?
मिसाल के तौर पर अमरीका स्थित कंपनी कॉग्निज़ेंट टेक्नोलॉज़ी सॉल्यूशंस को ही लीजिए. इस कंपनी के बारे में कहा जा रहा है कि ये छह से दस हज़ार कर्मचारियों की छंटनी कर रही है.
छंटनी का दौर
भारत की आईटी कंपनियां ज़्यादातर अमरीकी और दूसरे पश्चिमी देशों के लिए आउटसोर्सिंग का काम करती रही हैं. लेकिन अब अमरीका और दूसरे बाज़ार संरक्षणवाद और स्थानीय लोगों को नौकरी देने की नीति पर अमल कर रहे हैं. नतीजा ये कि कॉग्निज़ेंट जैसी कंपनियों का मुनाफ़ा घट रहा है. वो छंटनी करने को मजबूर हैं. दूसरी कंपनियों का भी यही हाल है
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भारत की सनशाइन इंडस्ट्री कहे जाने वाले आईटी सेक्टर के बुरे हाल की वजह पश्चिमी देशों की राष्ट्रवादी नीतियां ही नहीं हैं.
इस सेक्टर में तेज़ी से हो रहे ऑटोमेशन की वजह से भी रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं. कंपनियां बड़ी तेज़ी से ऐसे सॉफ्टवेयर डेवलप कर रही हैं जिनके ज़रिए काम को बिना इंसान के निपटाया जा रहा है. भारत की आईटी इंडस्ट्री की कामयाबी की बड़ी वजह ये भी थी कि यहां सस्ता श्रम उपलब्ध था. मगर अब ऑटोमेशन इस सस्ते श्रम पर भी भारी पड़ रहा है.
फरवरी में कॉग्निज़ांट के सीएफओ ने कहा कि उनकी कंपनी बड़े पैमाने पर ऑटोमेशन करेगी, ताकि वो दूसरी कंपनियों से मुक़ाबले में जीत सके. इसी तरह भारत की तीसरी बड़ी आईटी कंपनी इन्फोसिस ने बताया कि ऑटोमेशन की वजह से वो 9 हज़ार कर्मचारियों को निचले स्तर के काम से प्रमोट कर सकी है. इसी तरह विप्रो ने 2016 में ऑटोमेशन की मदद से 3200 कर्मचारियों को नया काम करने का मौक़ा दिया. इस साल विप्रो क़रीब 4500 कर्मचारियों को ऑटोमेशन की वजह से तरक़्क़ी दे सकेगी.
ऑटोमेशन की वजह से नौकरियों पर आफत
ऑटोमेशन यानी मशीनों के इंसानों की जगह काम करने की वजह से आईटी सेक्टर में कम नौकरियों की जगह बन पा रही है. ऑटोमेशन की वजह से अगले तीन साल में भारत के आईटी सेक्टर में नौकरियों में 20-25 फ़ीसद की कमी आने की आशंका जताई जा रही है.
जब कॉग्निज़ांट के बड़े पैमाने पर छंटनी करने की ख़बर आई, तो कंपनी के प्रवक्ता ने कहा कि वो छंटनी नहीं कर रहे हैं. वो बस अपनी लागत घटाने के लिए तकनीक की मदद ले रहे हैं, ताकि वर्कफ़ोर्स का बेहतर इस्तेमाल हो सके. कंपनी ने कहा कि वो इंसानो की जगह मशीनों को नहीं लगा रहे हैं. बल्कि दोनों के बीच बेहतर तालमेल से अपने आपको दूसरी कंपनियों से होड़ में आगे रखने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि फिलहाल ये कहना मुश्किल है कि कौन से ऐसे काम हैं जो ऑटोमेशन के चलते इंसानों से छिन रहे हैं.
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ब्रिटेन की एक रिपोर्ट कहती है कि कुछ नौकरियां ऐसी हैं जो ऑटोमेशन की वजह से ज़्यादा ख़तरे में हैं.
इनमें से ज़्यादातर वो काम हैं, जिन्हें मशीनें आसानी से और इंसानों के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से कर सकती हैं. जैसे कि सॉफ्टवेयर टेस्टिंग. जिस काम को चार कर्मचारी मिलकर करते हैं, उसे एक ही मशीन निपटा देती है. वो भी ज़्यादा तेज़ी से.
आईटी इंडस्ट्री में काम करने वालों को इसका एहसास है. इसीलिए वो नया कौशल सीखते हैं. मगर तकनीक इतनी तेज़ी से तरक़्क़ी कर रही है कि हर दो-तीन साल में उनके काम को करने वाली मशीन या सॉफ्टवेयर आ जाते हैं. फिर उन्हें नई स्किल सीखनी पड़ती है.
तो क्या भारत का आईटी सेक्टर बेहद कमज़ोर स्थिति में है?
आईटी सेक्टर की हालत खस्ता
1990 के दशक से ही भारत का आईटी सेक्टर डाटा एंट्री, कॉल सेंटर चलाने और सॉफ्टवेयर टेस्टिंग जैसे काम करता रहा है. कम कौशल वाले ये काम वो विदेशी कंपनियों के लिए करते रहे हैं. इसकी बड़ी वजह सस्ता श्रम रही. लेकिन जैसे-जैसे नई मशीनें ईजाद की जा रही हैं, ये काम भी भारतीय आईटी कंपनियों के हाथ से छिनता जा रहा है.
आईटी कंपनी Mphasis के गोपीनाथ पद्मनाभन कहते हैं कि पिछले दो-तीन सालों से भारत की आईटी इंडस्ट्री पर ऑटोमेशन की ज़बरदस्त मार पड़ी है. ये एक ऐसी हक़ीक़त है, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.
ऑटोमेशन की वजह से आईटी सेक्टर में नए मौक़े भी आ रहे हैं. लेकिन इनके लिए डेटा साइंस, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और बिग डेटा जैसी तकनीक की महारत हासिल करनी होगी. पद्मनाभन कहते हैं कि कंपनियों को आज ज़्यादा कुशल और कम कर्मचारियों लगातार ख़ुद को अपडेट करना होगा. नई तकनीक और नया कौशल सीखते रहना होगा. ऐसा उन्हें हर दो-तीन या चार साल में करना होगा.
यूं तो ऑटोमेशन की वजह से तमाम विकासशील देशों में नौकरियों पर ख़तरा मंडरा रहा है. मगर भारत के हालात एकदम अलग हैं.
बहुत से भारतीय बड़ी आईटी कंपनी में स्थायी नौकरी पाने के ख़्वाब देखते हैं. यही वजह है कि आईटी सेक्टर में छंटनी की ख़बरों से हड़कंप मचा हुआ है.
भारत की अर्थव्यवस्था में आईटी इंडस्ट्री की हिस्सेदारी 9.3 फ़ीसद है. लेकिन इसमें कुल क़रीब 37 लाख कर्मचारी ही काम करते हैं. ऐसे में आईटी सेक्टर की मंदी से देश की अर्थव्यवस्था पर भारी ख़तरा मंडरा रहा है कहना ठीक नहीं होगा.
विश्व बैंक के आंकड़े कहते हैं कि भारत की आईटी इंडस्ट्री में 69 फ़ीसद नौकरियों पर ऑटोमेशन का ख़तरा मंडरा रहा है. भारत के मुक़ाबले चीन में 77 प्रतिशत नौकरियां ऑटोमेशन की वजह से ख़तरे में हैं. दूसरे विकासशील देशों का भी यही हाल है.
भारत में वैसे भी रोज़गार के मौक़े ज़रूरत से बहुत कम ही उपलब्ध हो रहे हैं. 1991 से 2013 के बीच भारत में क़रीब 30 करोड़ लोगों को नौकरी की ज़रूरत थी. इस दौरान केवल 14 करोड़ लोगों को रोज़गार मिल सका.
इसके बावजूद ये कहना ग़लत है कि रोबोट, भारत के आईटी सेक्टर की सारी नौकरियां खा जाएंगे. ये बात ज़रूर है कि नई-नई तकनीक की वजह से नौकरियों में लगातार कमी आ रही है. पिछले साल सितंबर में ही कपड़ा कंपनी रेमंड्स ने कहा कि वो अगले तीन साल में दस हज़ार नौकरियां घटाकर ये काम रोबोट से कराएगा.
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चेन्नई स्थित बीएमडब्ल्यू की फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूर नेता विनोद कुमार मानते हैं कि बहुत सी भारतीय कंपनियों में ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां जाने का डर है. ख़ुद उनके कारखाने में तो फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा. मगर विनोद बताते हैं कि पास की ही ह्युंडै कंपनी की फैक्ट्री में बॉडी शॉप और पेंटिंग का काम पूरी तरह से ऑटोमैटिक मशीनों के हवाले कर दिया गया है.
जिन अन्य सेक्टरों में इंसानों का काम मशीनों के हाथ में जाने का अंदेशा है, वो हैं फार्मास्यूटिकल, फूड ऐंड बेवरेज कंपनियां, सिक्योरिटी और लॉजिस्टिक कंपनियां.
ऑटोमेशन की चुनौती
इन्फ़ोसिस के पू्र्व सीएफओ मोहनदास पाई कहते हैं कि ऑटोमेशन की वजह से हाई स्किल नौकरियों जैसे आर्किटेक्ट, उच्चस्तरीय कोडर को ख़तरा नहीं है. इसी तरह छोटे कामों जैसे रेस्टोरेंट और सलून में भी नौकरियां नहीं घटेंगी. ख़तरा इन दोनों के बीच वाली नौकरियों का है. जैसे बैंक, दूसरे सर्विस सेक्टर के दफ़्तरों और कारखानों में ऑटोमेशन तेज़ी से हो रहा है.
विश्व बैंक की 2016 की वर्ल्ड डेवेलपमेंट रिपोर्ट कहती है कि तकनीक की वजह से पूरी दुनिया में नौकरियां कम हो रही हैं. क्लर्क और मशीन ऑपरेटर जैसे कामों में मौक़े कम हो रहे हैं. वहीं हाई स्किल या लो स्किल नौकरियां बढ़ रही हैं.
भारत जैसे विकासशील देश के लिए ये बड़ी चुनौती है.
विश्व बैंक की सीनियर अर्थशास्त्री इंदिरा संतोष कहती हैं कि भारत में मध्यम वर्ग की तरक़्क़ी से बड़ी आबादी ग़रीबी रेखा से ऊपर उठ सकी. अब इसकी नौकरियों पर ख़तरे की वजह से ग़रीबी बढ़ने का डर है. इससे समाज में उठापटक मचने का डर है.
इंदिरा संतोष कहती हैं कि इसकी वजह सिर्फ़ ऑटोमेशन नहीं. ग्लोबलाइज़ेशन और शहरीकरण से भी ऐसा हो रहा है. लेकिन मध्यम वर्ग के लिए नौकरियों के कम होते अवसर से भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था को ज़्यादा ख़तरा है.
कंपनियों के लिए ऑटोमेशन करना मजबूरी है. उन्हें दूसरी कंपनियों से मुक़ाबले में आगे रहना है. अपना मुनाफ़ा बनाए रखना है और दुनिया की बड़ी कंपनियों से होड़ लगानी है. सीमेंस इंडिया के सुनील माथुर कहते हैं कि मशीनों से काम करना से आपको सस्ते आयात से मुक़ाबला करने में सहूलत होती है. आपका निर्यात बढ़ता है. घरेलू मांग बढ़ती है.
वेयरहाउस कंपनी चलाने वाले समय कोहली, सुनील माथुर से सहमत हैं. वो कहते हैं कि भारत दुनिया के बाक़ी देशों से उत्पादकता के मामले में काफ़ी पीछे है. दूसरे देशों में कंपनिया जो काम 100 रुपए में कर लेती हैं, भारत में उसके लिए 125-150 रुपए ख़र्च होते हैं.
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दुनिया के बाक़ी देशों से मुक़ाबले के लिए कोहली ऑटोमेशन को ज़रूरी बताते हैं. उनकी कंपनी ग्रे ऑरेंज बटलर और सोर्टर नाम के रोबोट बनाती है. ये रोबोट ख़ुद से पैकेज की पड़ताल कर लेते हैं. उन्हें अलग-अलग बांट लेते हैं. ग्रे ऑरेंज कंपनी फ्लिपकार्ट, डीटीडीसी और जबॉन्ग जैसी कंपनियों को सेवाएं देती है.
कोहली बताते हैं कि उनका बटलर रोबोट एक घंटे में 600 चीज़ें उठा सकता है. कोई मज़दूर इतने ही वक़्त में सिर्फ़ 100 सामान उठाएगा. ऐसे में उनके लिए मशीनों से काम लेना काफ़ी सस्ता पड़ता है. वो अपनी लागत घटा सकते हैं. इससे मुनाफ़ा बढ़ेगा.
हालांकि कोहली बताते हैं कि उनकी कंपनी का काम तेज़ी से बढ़ रहा है. हर साल वो क़रीब तीन सौ फ़ीसद ज़्यादा कर्मचारी रख रहे हैं. मगर काम का बढ़ता दबाव, कम तनख़्वाह और शहर में रहने के ख़र्च की वजह से ज़्यादातर कर्मचारियों का रहन-सहन बेहतर नहीं होता. कोहली के मुताबिक़ गांवों से लोग शहर में बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद लिए हुए आते हैं. मगर यहां उनका जीवन स्तर और गिर जाता है. ऐसे में ऑटोमेशन की मदद से उनका काम भी आसान होता है और रहन-सहन भी बेहतर होता है. काम बढ़ता है तो मुनाफ़ा भी बढ़ता है. इससे कर्मचारियों की तनख़्वाह भी बढ़ती है.
कौशल की कमी
आईबीएमस रिसर्च इंडिया के प्रमुख श्रीराम राघवन कहते हैं कि भारत जैसे देश में ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां नहीं जातीं. बल्कि ये कंपनियों में कौशल की कमी को पूरा करती हैं. अच्छे कर्मचारियों की कमी दूर करती हैं.
राघवन कहते हैं कि जैसे भारत में तीन लाख तीस हज़ार से ज़्यादा डॉक्टरों की कमी है. ऐसे में मशीनों की मदद से ये कमी दूर की जा सकती है. इंटरनेट के ज़रिए डॉक्टर दूर दराज़ के लोगों से संपर्क कर सकते हैं. दूर-दराज़ के इलाक़ों में काम कर रहे डॉक्टरों की मदद करके, ये कमी पूरी कर सकते हैं. इससे हर इंसान को शहर भागने की ज़रूरत कम होगी.
फिर भी ऑटोमेशन की वजह से आईटी सेक्टर के कर्मचारियों पर ख़तरा मंडरा रहा है. हालांकि मोहनदास पाई कहते हैं कि भारत में मज़दूरी सस्ती है. अभी नई नई तकनीक नहीं उपलब्ध है. ऐसे में अगले दस सालों तक ऑटोमेशन से भारत में रोज़गार को ज़्यादा बड़ा ख़तरा नहीं. इतने वक़्त में भारत अपनी इस चुनौती का तोड़ खोज सकता है.
विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि तकनीक से मुक़ाबले में भारत जैसे देशों को जीत हासिल करने कि लिए फ़ौरन क़दम उठाने होंगे. तभी वो अपनी विशाल आबादी को रोज़गार मुहैया करा सकेंगे.
भविष्य में रोबोट से कैसे बचाएं नौकरी?
जैसे-जैसे तकनीक से काम आसान होगा, नौकरियों पर मार बढ़ती जाएगी. लेकिन ऑटोमेशन उन नौकरियों में नहीं लागू किया जा सकेगा, जहां पर क्रिएटिविटी, आपसी सहयोग और सोच-विचारकर फ़ैसले लेने की ज़रूरत होगी.
भारत के साथ दिक़्क़त ये है कि यहां की शिक्षा व्यवस्था रट्टा मारकर पास होने की नीति पर आधारित है. आईआईटी मद्रास के प्रोफ़ेसर अशोक झुनझुनवाला कहते हैं कि आज ज़्यादातर शिक्षण संस्थानों में युवाओं को भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए नहीं तैयार किया जा रहा है.
हालांकि हालात धीरे-धीरे बेहतर हो रहे हैं. कुछ स्कूलों में वर्चुअल लैब के ज़रिए पढ़ाई की जा रही है. इंटरनेट जैसी तकनीक की मदद से दूर-दराज़ के बच्चों को नई तकनकी से रूबरू कराया जा रहा है. भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए ये अच्छी शुरुआत है. झुनझुनवाला कहते हैं कि आज का भारतीय युवा तेज़-तर्रार है. वो बदलावों को तेज़ी से अपनाता है. उसे भविष्य की फिक्र है.
झुनझुनवाला के मुताबिक़ जब ऑटोमेशन की वजह से एक सेक्टर में नौकरियां कम होती हैं, तो भारतीय युवा दूसरी दिशा का रुख़ कर लेते हैं. वो नई चीज़ें सीखने को राज़ी हैं. ख़ुद को लगातार अपडेट और अपग्रेड कर रहे हैं.
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आईबीएम के श्रीराम राघवन कहते हैं कि ऑटोमेशन में इस्तेमाल होने वाली मशीनों के ज़रिए छात्रों की क़ाबिलियत को भी परखा जा सकता है. उन्हें भविष्य की चुनौतियों से निपटने की तैयारी कराई जा सकती है. वो कहते हैं कि आज लोगों के पास जो हुनर है, शायद पांच साल बाद उसकी ज़रूरत न रहे. ऐसे में उन्हें नया हुनर, नया कौशल सीखना होगा. मशीनें इस काम में मददगार हो सकती हैं.
इसी साल फरवरी में माइक्रोसॉफ्ट और लिंक्डइन ने प्रोजेक्ट संगम शुरू किया था. ये लोगों को उनका प्रोफ़ाइल अपडेट करने में मदद करता है. जिससे ज़रूरत पड़ने पर कंपनियां उन्हें नौकरी पर रख सकें.
अशोक झुनझुनवाला मानते हैं कि तकनीक से लड़ाई करना बेकार है. ऑटोमेशन होकर रहेगा. बेहतर है कि हम बदले हालात के हिसाब से ख़ुद को ढाल लें. अपने लिए नई चुनौतियां और नए मौक़े तलाशें.
झुनझुनवाला नाउम्मीद नहीं हैं. वो कहते हैं कि भारत के पास एक ख़ुफ़िया हथियार है ऑटोमेशन की क्रांति से लड़ने के लिए. वो ये है कि भारत के लोग तालीम को काफ़ी अहमियत देते हैं. पश्चिमी देशों में जहां शिक्षा को उतनी अहमियत नहीं दी जाती. मगर भारत में वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण इसीलिए सबसे ऊपर रखे गए हैं क्योंकि वो शिक्षा के प्रतीक हैं. लड़ाकू योद्धा कही जाने वाली राजपूत बिरादरी सामाजिक पायदान में ब्राह्मणों के बाद आती है.
मोहनदास पाई भी कहते हैं कि ये भारत की सांस्कृतिक विरासत की ख़ूबी है. भारत में ही ऐसा होता है कि गुरु को समाज में बहुत सम्मान हासिल है. उसे राजा से भी ऊंचा स्थान मिलता है. बाक़ी देशों में राजा और योद्धाओं को पूजा जाता है. हिंदुस्तान में पढ़े-लिखे लोगों, गुरुओं को सबसे ज़्यादा सम्मान हासिल है.
भारत में ज्ञान सबसे क़ीमती और सशक्त माना जाता है. यही विरासत भारत की सबसे बड़ी ताक़त है.
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