आज के समय में भारत के लिए रोजगारी है सबसे ज्वलंत मुद्दा



आज के समय में भारत के लिए रोजगारी है सबसे ज्वलंत मुद्दा






प्रश्न यह भी है कि क्या भारतीय जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर मुहर लगाने की बजाय इस तरह के बुनियादी मुद्दों पर कोई कठोर निर्णय लेगी? हर बार वह अपने मतों से पूरा पक्ष बदल देती है। कभी इस दल को, कभी उस दल को, कभी इस विचारधारा को, कभी उस विचारधारा को।


दुनिया भर के शासक एवं सत्ताएं अपनी उपलब्धियों का चाहे जितना बखान करें, सच यह है कि आम आदमी की मुसीबतें एवं तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके बजाय रोज नई-नई समस्याएं उसके सामने खड़ी होती जा रही हैं, जीवन एक जटिल पहेली बनता जा रहा है। विकसित एवं विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रियों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास से कौन-सी समस्या घटती है?

 बहुराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च कंपनी इप्सॉस के द्वारा इसी माह कराया गया सर्वेक्षणवॉट वरीज दि वल्र्ड ग्लोबल सर्वेके निष्कर्ष विभिन्न देशों की जनता की अलग-अलग चिताओं को उजागर करता हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां बीते मार्च में किए गए सर्वे में ज्यादातर लोगों ने यह तो माना कि सरकार की नीतियां सही दिशा में हैं, लेकिन आतंकवाद की चिंता उन्हें सबसे ज्यादा सता रही थी। उसके बाद देश के लोग बेरोजगारी को लेकर सबसे ज्यादा परेशान पाए गए, हालांकि आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है। हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त हैं। वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशासन में ढाल नहीं सके। कारण राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका।


इप्सॉस का ऑनलाइन सर्वे 28 देशों के 65 वर्ष से कम आयु के लोगों के बीच किया गया, जिसमें बाजार की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन मुल्कों के औसतन 58 प्रतिशत नागरिकों ने माना है कि उनका देश नीतियों के मामले में भटक-सा गया है। ऐसा सोचने वालों में सबसे ज्यादा दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, फ्रांस, तुर्की और बेल्जियम के लोग हैं। आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार, गरीबी और सामाजिक असमानता ज्यादातर मुल्कों में बड़े मुद्दे हैं। बेरोजगारी, अपराध, हिंसा और स्वास्थ्य संबंधी चिंता इनके बाद ही आती है। अपनी सरकार में सबसे ज्यादा विश्वास चीन के लोगों का है। वहां दस में नौ लोग अपनी सरकारी नीतियों की दिशा सही मानते हैं। यह इस नियमित सर्वेक्षण पर तात्कालिक घटनाओं का काफी असर रहता है। जैसे भारत में इस बार का सर्वे पुलवामा हमले के बाद किया गया तो इस पर उस हादसे की छाया थी लेकिन देश के पिछले सर्वेक्षणों को देखें तो आतंकवाद का स्थान यहां की चिंताओं में नीचे रहा है और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या के तौर पर देखी जाती रही है। रोजगार की फिक्र भारत में सबसे ऊपर होने की पुष्टि अन्य सर्वेक्षणों से भी हुई है। लेकिन सत्रहवीं लोकसभा के लिए जारी चुनाव अभियान में बेरोजागारी के ज्वलंत मुद्दे की उपस्थिति और उस पर कुछ मंथन होता और नतीजे में शायद आगामी चुनी जाने वाली सरकार से रोजगार की कोई तजबीज भी होते हुए दिख पाती। विकास की वर्तमान अवधारणा और उसके चलते फैलती बेरोजगारी को राजनेताओं ने लगभग भूला-सा दिया है, लेकिन ये ही ऐसे मसले हैं जिनके जवाब से कई संकटों से निजात पाई जा सकती है। 

प्रश्न यह भी है कि क्या भारतीय जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर मुहर लगाने की बजाय इस तरह के बुनियादी मुद्दों पर कोई कठोर निर्णय लेगी? हर बार वह अपने मतों से पूरा पक्ष बदल देती है। कभी इस दल को, कभी उस दल को, कभी इस विचारधारा को, कभी उस विचारधारा को। लेकिन अपने जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को तवज्जों क्यों नहीं देती? मैं जहां तक अनुभव करता हूँ भारतीय जनता की यह सबसे बड़ी कमजोरी रही है। शेक्सपीयर ने कहा था- ''दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।'' पर आज अगर शेक्सपीयर होता तो इस परिप्रेक्ष्य में, कहता ''दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता है।'' आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। पर शीर्ष पर आज इसका अभाव है। वहां मूल्य बन ही नहीं रहे हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर राजनीतिक निजी हितों पर ठहर गया है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठती भी है तो ऐसा लगने लगता है कि यह विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुस रहा है।

पिछले ही महीने प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट में 76 प्रतिशत वयस्कों ने बेरोजगारी को बहुत बड़ी समस्या बताया था। दरअसल भारत में सरकार का आकलन कई मुद्दों को लेकर किया जा रहा है, लिहाजा ज्यादातर लोगों का भरोसा उसकी नीतियों पर बना हुआ है। लेकिन इस बात पर प्रायः आम सहमति है कि वह रोजगार के मोर्चे पर वह विफल रही है। एक तबका एनएसएसओ के हवाले से कहता है कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत तक पहुंच गई जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है। लेकिन इस आंकड़े को सरकार नहीं मानती। जो भी हो, पर इप्सॉस सर्वे में सरकार के लिए यह संदेश छुपा है कि वह सुरक्षा को लेकर तैयारी पुख्ता रखे, लेकिन लोगों की रोजी-रोजगार से जुड़ी मुश्किलों की भी अनदेखी करे।


निर्धनता दूर करने का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सभी के लिए संतोषजनक रोजगार उपलब्ध हो तथा रोजगारों से जुड़ी विभिन्न विषमताओं को कम किया जाए। इस संदर्भ में यदि भारत की स्थिति को देखा जाए तो हमारे देश में रोजगार से जुड़ी विषमताएं अनेक स्तर पर मौजूद हैं उन्हें दूर करने के की दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष हैं। इनमें से अनेक विषमताओं की ओर हाल ही में जारी की गई वैश्विक एनजीओआक्सफैम-इंडियाकी रिपोर्ट विषमताओं पर ध्यान देते हुए भारत में रोजगार की स्थिति को प्रमुखता से उभारा है।

स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-2018’ के अनुसार भारत में 82 प्रतिशत पुरुषों और 92 प्रतिशत महिलाओं की मासिक आय 10,000 रुपये प्रतिमाह से कम है जो एक बहुत चिंताजनक स्थिति है। सातवें वेतन आयोग ने तय किया था कि न्यूनतम मासिक आय 18,000 रुपये होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कृषि सबसे बड़ा रोजगार बना हुआ है, पर इस क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। अनेक दलित महिला मजदूरों की स्थिति बंधुआ मजदूरों जैसी है। शहरी क्षेत्रों में घरेलू-कर्मियों में 81 प्रतिशत महिलाएं तंबाकू-बीड़ी के कार्य में 77 प्रतिशत महिलाएं हैं। इन दोनों कार्यक्षेत्रों में स्थितियां कई स्तरों पर अन्यायपूर्ण हैं।आक्सफैमकी इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। इस संकट का उचित समय पर समाधान हुआ तो इसका समाज की स्थिरता और शांति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। एक और जो दसियों लाख युवा श्रम-शक्ति में प्रतिवर्ष रहे हैं उनके लिए पर्याप्त रोजगार नहीं हैं, दूसरी ओर इन रोजगारों की गुणवत्ता वेतन अपेक्षा से कहीं कम हैं। लिंग, जाति धर्म आधारित भेदभावों के कारण भी अनेक युवाओं को रोजगार प्राप्त होने में अतिरिक्त समस्याएं हैं। इस स्थिति से परेशान युवा एक समय के बाद रोजगार की तलाश छोड़ देते हैं। इन कारणों से सरकार द्वारा रोजगार प्राप्ति की सुविधाजनक परिभाषा के बावजूद बेरोजगारी के आंकड़ें चिंताजनक हो रहे हैं यह प्रवृत्ति आगे और बढ़ सकती है।

इस चिंताजनक स्थिति को सुधारने के लिए इस रिपोर्ट ने व्यापक स्तर पर सुधार के सुझाव दिये गये हैं। स्वास्थ्य शिक्षा में अधिक निवेश से उत्पादकता में सुधार होगा। यह दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें भविष्य में बहुत रोजगार सृजन भी हो सकता है। कुशलता बढ़ाने पर बेहतर ध्यान देना चाहिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक सकें। सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना चाहिए। कर-नीतियों में विषमता की दर कम होनी चाहिए। कारपोरेट टैक्स में छूट देने का अतिरिक्त उत्साह उचित नहीं है। इस तरह जो अतिरिक्त राजस्व प्राप्त हो उसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य सामाजिक सुरक्षा सुधारने के लिए करना चाहिए। क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? चुनाव प्रचार करने हैलीकॉप्टर से जाएंगे पर उनकी जिंदगी संवारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। तब उनके पास बजट की कमी रहती है। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र होकर सज़ातंत्र हो गया। क्या इसी तरह नया भारत निर्मित होगा? राजनीति सोच एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई गरीब नमक और रोटी के लिए आत्महत्या नहीं करें। 

  
वर्ष 2016 में तत्कालीन शिरोमणि अकाली दल बादल-भारतीय जनता पार्टी गठबन्धन सरकार ने अमृतसर स्थित हरिमन्दिर साहिब के पास विरासती गलियारे का परियोजना लागू की थी। इसके तहत जहां नगर का सौंदर्यीकरण किया गया वहीं पंजाब की परम्परा को दर्शाते प्रतिमाएं स्थापित की गईं। इनमें भंगड़ा-गिद्दा डालते हुए युवक-युवतियों को भी प्रदर्शित किया गया। कठमुल्लावादी संगठनों का मत है कि गुरुद्वारे को जाने वाले मार्ग पर इस प्रकार की प्रतिमाएं सहन नहीं और इससे युवा पीढ़ी पथभ्रष्ट हो रही है, इसके स्थान पर गुरु साहिबान से जुड़े उपदेशों को प्रदर्शित किया जाना चाहिए। गत सरकार का उद्देश्य इस गलियारे के माध्यम से राज्य में पर्यटन संस्कृति को प्रोत्साहन देना रहा। सरकार का प्रयास असफल भी नहीं गया क्योंकि अमृतसर में आने वाले भारतीय विदेशी पर्यटक इस गलियारे में जरूर भ्रमण करते हैं। इसके चलते नगर में पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है परन्तु बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं पर तोप चलाने जैसी सोच के चलते सरकार ने इन प्रतिमाओं को हटाने की कार्रवाई शुरू कर दी है और इन प्रतिमाओं को पर्यटन विभाग को सौंपा जा रहा है।


गिद्दा-भंगड़ा पंजाब की युगों पुरानी प्राचीन धरोहर रहा। माना जाता है कि महाभारत काल से ही इस भू-भाग पर महिला-पुरुष मण्डल बना कर ढोल की थाप पर नाचते हैं और बोलियां डालते हैं। महिलाओं के नाच को गिद्दा पुरुषों के नाच को भंगड़ा कहा जाता है। दरअसल गिद्दा-भंगड़ा केवल लोकनाच ही नहीं बल्कि पंजाबी संस्कृति की झलक है जिसमें समस्त जीवन का लोकाचार छिपा है। गिद्दे-भंगड़े की बोलियां सामाजिक व्यक्तिगत जीवन के हर क्षेत्र को छूता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गिद्दा-भंगड़ा पंजाबी संस्कृति का महाकोष है जिसके जरिए कोई भी देश के इस समृद्ध क्षेत्र में सदियों से पनपी संस्कृति के बारे जान सकता है। एक जीवन्त कला के कारण बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक में गिद्दे-भंगड़े की धूम है लेकिन अब यही अमीर विरासत पर तालिबानी त्यौरियां चढ़ती दिख रही हैं। देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए पंजाब में तो गिद्दा-भंगड़ा लगभग लुप्त हो गया और अब भारतीय पंजाब में भी यह पौराणिक गंधर्वकला पौंगापन्थियों के निशाने पर है।

वैसे पंजाब में तालिबानी वायरस का यहां की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर पर कोई नया हमला नहीं, बल्कि राज्य आतंकवाद के दौर में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं देख चुका है। राज्य में आतंकवाद के काले दौर में उग्रवादियों ने फिल्म स्टार धर्मेन्द्र के चचेरे भाई पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार विरेंद्र की 6, दिसम्बर 1988 को गोलियां मार कर हत्या कर दी। इसी साल आतंकियों ने 8 मार्च को पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला को भी गोलियों से भून दिया जब वो एक गांव में अपना कार्यक्रम (अखाड़ा) पेश करने गए। चमकीला वरिन्द्र पर भी आतंकियों ने इसी तरह अश्लीलता फैलाने के आरोप लगाए थे। अभी हाल ही में हिन्दी भाषा को लेकर दिए बयान को लेकर सदाबाहार पंजाबी गायक गुरदास मान भी इन कट्टरपन्थियों की शाब्दिक चान्दमारी झेल रहे हैं। वे जहां भी जाते हैं उनका घेराव किया जाता है। पंजाबी संस्कृति के सेवक को गद्दार बता कर उन्हें अपमानित किया जाता है। गुरदास मान का अपराध केवल इतना है कि भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की हां में हां मिलाते हुए उन्होंने कह दिया कि देश की एक भाषा अवश्य होनी चाहिए। उनका भाव था कि पूरे देश में एक ऐसी भाषा अवश्य हो जिसमें पूरे देशवासी आपस में संवाद कर सकें लेकिन कट्टरपन्थियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि गुरदास मान पंजाबी की बजाय हिन्दी लागू करने का समर्थन कर रहे हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 1960 के दशक में पंजाब में हिन्दी-पंजाबी को लेकर विवाद हो चुका है और कट्टरपन्थी लोग गाहे-बगाहे आज भी इस विवाद को चिंगारी लगाने का प्रयास करते रहते हैं।



पंजाब की संस्कृति स्वभाव से ही रंगों, नृत्य, हंसी-खुशी, गीत-संगीत, खुलदिली का गुण धारण किए हुए है। यहां के लोगों ने हर नए विचार आचार-व्यवहार को खुले मन से स्वीकार किया है। इन्हीं गुणों के चलते पंजाब की पूरे देश ही नहीं बल्कि विश्व में अपनी विशेष पहचान है। अपनी वाणी में श्री गुरु नानक देव जी ने भी 'नचणु कुदण मन का चाउ' अर्थात् नाचना-कूदना मन का चाव का सन्देश दिया परन्तु एक कुण्ठित सोच गुरु के इन आदेशों का भी उल्लंघन करती हुई दिखाई दे रही है। हैरानी की बात है कि इस दकियानूसी सोच को पंजाबी मीडिया के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिल रहा है। पंजाब सरकार ने तो मानो इसके सामने समर्पण ही कर दिया है। 19 जनवरी को कुछ कट्टरपन्थी लोगों ने अमृतसर के विरासती गलियारे में लगी गिद्दा-भंगड़ा डालने वाली प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त कर दिया। पुलिस ने इनके खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज किया और चण्डीगढ़ में गिरफ्तारी भी हुई परन्तु मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ने अब केवल इन प्रतिमाओं को हटाना शुरु करवा दिया बल्कि उनके खिलाफ केस भी वापिस लेने की बात कही है। पंजाबी समाज के एक वर्ग में घर कर रही तालिबानी मानसिकता वास्तव में ही चिन्ता का विषय होना चाहिए परन्तु पूरे मामले का दुखद पहलू यह भी है कि खतरनाक घटना पर समाज के बाकी हिस्से ने भी मौन धारण किया हुआ है। गिद्दे और भंगड़े को अपनी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया लगता है।





भारत में बेरोजगारी दर और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को लेकर लंबे अर्से से बहस छिड़ी है। सरकार कहती है कि देश सही रास्ते पर चल रहा है और आर्थिक विकास हो रहा है लेकिन विपक्ष सरकार की दलीलों से सहमत नहीं है। उद्योग जगत के जानकार कहते हैं कि सरकार कम समय में विकास दर बढ़ाने की कोशिश कर रही है। जानकारों का कहना है कि सरकार ने बजट में तेज आर्थिक विकास की बुनियाद रखी है।
वहीं कुछ आलोचकों का कहना है कि वृद्धि दर और निजी क्षेत्र का सेंटीमेंट 6 साल के सबसे निचले स्तर पर है। सरकार ने अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए 2.10 लाख करोड़ रुपए का विनिवेश लक्ष्य रखा है। अपने दूसरे बजट भाषण में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अगले वित्त वर्ष में 10 फीसदी आर्थिक विकास दर हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है।
बजट पेश करने के बाद सीतारमण ने पत्रकारों से कहा कि भारत जैसी दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था को सिर्फ एक इंजन आगे नहीं बढ़ा सकता है। इसे आगे बढ़ाने के लिए सभी तरह के इंजनों को एकसाथ लगाना होगा। उनके मुताबिक सभी सेक्टरों को एकसाथ मिलकर अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना होगा जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र, विदेशी निवेशक और आम जनता शामिल हैं।



एसोचेम के सीनियर वाइस प्रेसीडेंट विनीत अग्रवाल के मुताबिक टैक्स दरों में बदलाव कर सरकार ने कोशिश की है कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा जाए, पैसा ज्यादा रहेगा तो वह खपत में जाएगा। खपत में पैसा जाने से मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ेगा। साथ ही हम चाहेंगे कि जो भी सरकार की नीति है, वह एक समान रहे ताकि भारतीय कंपनियों के अलावा विदेशी कंपनियां जो यहां निवेश के लिए रही हैं, वे अगले 5-10 साल की योजना बना पाएं।

बेरोजगारी पर स्पष्टता की कमी


देश में इस वक्त सबसे ज्यादा आबादी युवाओं की है और जो रोजगार के क्षेत्र में अवसर की तलाश में हैं। सरकार ने बजट में कौशल विकास के लिए 3,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया है। देश में शिक्षकों, नर्सों, पैरा मेडिकल स्टाफ और देखभाल करने वालों के लिए विदेशी मांग को पूरा किया जाएगा।


सरकार ने माना है कि भारतीय युवाओं का कौशल कमजोर है। हालांकि सरकार ने बजट में रोजगार के आंकड़े को लेकर कोई संख्या नहीं बताई है और ही यह बताया कि कितने लोगों को अगले वित्त वर्ष तक सरकार नौकरी देने जा रही है। एक अखबार को दिए इंटरव्यू में निर्मला सीतारमण ने कहा कि मान लीजिए कि आज मैं एक आंकड़ा बोल दूं- 1 करोड़ फिर 15 महीने बाद राहुल गांधी पूछेंगे कि आपने 1 करोड़ नौकरियों का कहा था, क्या हुआ?
सीतारमण के इसी बयान पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा सांसद राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि वित्तमंत्रीजी, मेरे सवालों से मत डरिए। मैं यह सवाल देश के युवाओं की ओर से पूछ रहा हूं जिन्हें जवाब देना आपकी जिम्मेदारी है। देश के युवाओं को रोजगार की जरूरत है और आपकी सरकार उन्हें रोजगार देने में बुरी तरह नाकाम साबित हुई है।


वैसे उद्योग जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि रोजगार के प्रति सरकार का दृष्टिकोण सही है। ऑक्टस एडवाइजर्स के सौरभ सिंघल कहते हैं कि रोबोटिक्स, क्वांटम तकनीक, मशीन लर्निंग, मैन्युफैक्चरिंग तकनीक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां आने वाले सालों में रोजगार पैदा होंगे। इस लिहाज से सरकार का फोकस ठीक है। नीति की घोषणा के साथ ही रोजगार पैदा नहीं होने वाले हैं। यह लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है। सरकार को अपना फोकस लंबे समय के लिए तय रखना होगा।
वे कहते हैं कि सरकार को देखना होगा कि किस क्षेत्र में नौकरी मिल सकती है और कैसे कौशल विकास किया जा सकता है? सरकार को यह भी देखना चाहिए कि हम जो भी पढ़ा रहे हों, वह नौकरी पाने या कौशल सीखने के लिए पढ़ा रहे हों। सरकार ने क्वांटम तकनीक और एप्लीकेशन पर राष्ट्रीय मिशन की घोषणा की है। अगले 5 वर्षों में क्वांटम एप्लीकेशन पर 8 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की योजना है।


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